ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
एक
रात काफी बीत चुकी थी। आकाश बादलों की काली चादर ओढ़े था। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। गिरजे की घड़ी ने टन-टन दस बजाए।
पानी से धुली और बिजली के लैम्पों की रोशनी में चमकती हुई पक्की सड़क पर एक घोड़ागाड़ी एक कोठी के फाटक के सामने आकर रुकी। एक अधेड़ आयु के व्यक्ति बाहर निकले और हाथ में पकड़ा छाता खोल लिया। उनके पीछे-पीछे हाथ का सहारा लिए हुए एक युवा लड़की भी गाडी से उतरी और सिमटकर छाते के नीचे आ रही। कोचवान ने गाडी बढा दी, दोनों छाते में सिमटे फाटक से भीतर जाने लगे।
सामने से उनके चेहरे पर तेज टार्च की रोशनी पड़ी। दोनों ठिठककर रुक गए। खाकी वर्दी में एक आदमी उनकी ओर बढ़ा और पास आते ही बोला-’कौन? राणा साहब।'
'हैलो! इन्स्पेक्टर तिवारी - इतनी रात गए तुम-' राणा साहब ने अपने भारी स्वर को नम बनाते हुए पूछा।
‘जी....! ड्यूटी पर हूं।’
‘ड्यूटी ! इस बरसात में?’
‘एक चोर की खोज में हूं जो थोड़ी देर हुई, यहीं कहीं दृष्टि से ओझल हो गया है……'
'ओह तो आइए, भीतर चलिए...'
'इस समय तो क्षमा चाहता हूं... परन्तु आज आप इतनी देर......?
'एक शादी में सम्मिलित होना था... यह मेरी बेटी रेखा...'
तिवारी ने मुस्कराते हुए उसका अभिवादन किया और कहा- 'आप भीतर चलिए, वर्षा जोर पकड़ रही है।'
उत्तर में दोनों ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और लपककर भीतर की ओर बढ़ गए। भीगे हुए छाते को बरामदे में रखते ही दोनों ने सन्तोष की सांस ली और एक उड़ती दृष्टि बाहर के घोर अन्धेरे में डाली। इन्स्पेक्टर तिवारी जीप में बैठकर जा रहा था।
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